बरसते हुए मौसम में तुम याद बहुत आये शाम की चादर में सब मौसम घर आये याद आया वो खिड़की पे मचलता पानी शोख नज़रों से तेरी ओर ताकता पानी वोह शाम की मुंडेरों पे नन्ही चिड़िया और एक नन्ही परी घर से निकलती दिखी पानी भरी गलियों में अंगूठे से पत्थर तलाशती और नटखट छींटों से दामन बचाती जाती पुस्तकें एक हाथ में और जूते भी ऐसे पंजो पे चली जाती थी तुम जैसे अपने पैरों में पड़े दिलों की खैरमंद हो तुम क्या तुम्हे याद है नुक्कड़ पे साईकिल पे बैठा लड़का जो तुम्हे देख के अक्सर लड़खड़ा के गिर जाता था बालों को संभालता था उलटे हाथो से और यूँ तकता था ऐसे तुमको जैसे वक़्त के सिलसिले का आखरी लम्हा तुम हो जैसे हर रात सुबह को हसरत से तकती है जैसे एक अज़ान लहरा के आसमा की जानिब उठ्ठे क्या तुम्हें कुछ ज़रा याद आता नहीं है क्या तुम्हें वो भूलना भी याद आता नहीं है मुझे तुम आज की बारिश में याद बेशुमार आये और मुझे याद आया की कितना तनहा में हूँ
I am a Worshiper of Words. I ponder, I think, I write, therefore, I exist. A Blog on Literature, Philosophy and Parenting