समंदर तुम्हारा अनंत विस्तार, मानो क्षितिज से वर्चस्व के युध्ध में निरंतर रत है; मेघ जैसे उतर आये हैं बचपन के मित्र की तरह तुम्हारे माथे के स्वेद बिन्दुओं को पोछ देने को, और सूरज जैसे कोई उत्सुक राहरौ, माने ठिठक के इस अनवरत अभियान को तक रहा हो ना जीतने वाला है कोई उसका न कोई हारने वाला| थक कर थोड़ी देर में अपनी राह चल देगा वोह और चल देगा, तुम्हारा दोस्त बादल और तुम यूँ ही उलझे रह जाओगे इस अनवरत अभियान में ना कोई हाथ थामेगा न कोई रक्त पोछेगा| बस एक नन्ही नदी तेरी बेटी, अश्रु पूरित नेत्रों से तुम्हें संघर्ष रत तकती रहेगी, तुम्हारे पांव दाबेगी तुम्हारा माथा चूमेगी और अपनी राह में बटोरे सारे दर्द, सारी हंसी, सारा प्यार तुम्हारी छाती से लग कर तुम्हें सब सौंप देगी, और अपनी सब उदासी, तुम्हारी खामोशी में गर्क कर देगी और उस वक़्त, ये निरर्थक सा दीखने वाला अभियान अटल एक अर्थ पा लेगा जो तुम एक धरोहर पानी की क्षितिज पे जीत की सूरत उफक के हाँथ सौपोगे जिसे वोह पर्वतों के पार जाकर उसी नन्ही सी बेटी को, निरंतरता की शक्ल सौंपेगा/ और तुम एक पर्वतों से टूटती
I am a Worshiper of Words. I ponder, I think, I write, therefore, I exist. A Blog on Literature, Philosophy and Parenting