गोवध- निज पुत्र का भाग तज कर मनुज पुत्र का पोषण किया। सम संतुलन सबको दिया मस्तक पर धरा धारण किया। रहट खींचा, खेत सींचे, धर्म का संबल दिया। अन्न, प्रेम, सात्विक मित्रता, सब कुछ तुम्हें निश्छल दिया। पुत्रवत स्नेह से तुमने पुकारा पास जब मातृवत आई मैं दौड़ी मन में लिये विश्वास तब। जिह्वा के मिथ्या लोभ में हा, वध मेरा तुमने किया, इक मूक पशु को मारकर मानवता को बस लज्जित किया। मैं तो तुम्हारे स्वाद पर, मिथ्या दंभ पर अर्पित हुई इस पाशविक बलिवेदि पर मनुजता ही तो बस लज्जित हुई। माता रही मैं शिव-पुत्र मानव तुझसे मेरा क्या द्वेष था, शत्रु बनाया मुझको अपना यह देखना बस शेष था। जिस देश पर बनता था सदियों पहला ग्रास मेरे नाम पर। मेरे ही भक्षण को है आतुर वह राष्ट्र है संग्राम पर। कौड़ियाँ फेंकी हैं किसने जीत की और हार की। युद्ध है यह धर्म का या प्रेरणा संहार की। कहता है जो पशुवध राष्ट्र का अधिकार है, स्वातंत्र्य है अभिशाप उसका, उस मनुष्य पर धिक्कार है। - साकेत
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