अनदेखे ख़्वाबों की दो आँखें, जिन्होंने स्वप्न देखने की आयु से पूर्व दु:स्वप्न देख आँखें मूँद लीं। जो क़दम अभी चलना ही सीखे थे, लड़खड़ा कर थम गए। बचपन के घुटने की हर खरोंच, व्यस्कों के गाल पर एक तमाचा है।
धर्म के आडंबरों से अछूता बाल मन जो मंदिरों और मस्जिदों को अपनी आत्मा में रखता था, धर्म की दरारों पर अपना नन्हा शव छोड़ निकल पड़ा। कहीं दूर,दग्ध शरीर के ताप से दूर, जब यह अकलुषित हृदय पहुँचा तो एक और निष्पाप दूधिया आत्मा दिखी, जिसकी पलकों के कोरों में उसकी आँखों के जैसे ही अविश्वास से सहमा हुआ अश्रु रूका था।
एक दूसरे के गले लग कर दोनों बाल मन दरिया के टूटे बाँध की तरह बह निकले। घाव बाँटे, एक दूसरे के हृदय में चुभी धरती की किरचें निकाली और न देखे हुए स्वप्नों का श्राद्ध रचा। उसने थमती हिचकियों में अपना नाम बताया - असीफा । और दुख के साथी की ठोड़ी थाम कर कहा - "मत रो, न्याय होगा।"
धरती की तरफ़ नन्ही गुलाबी उँगली दिखा कर कहा- “देख, भले लोग लड़ रहे है मेरे लिए, न्याय होगा। तेरे लिये भी लड़ रहे होंगे। तू मत रो”
फिर बोली, “मैं पश्चिम से हूँ, तू पूरब से, पर हैं तो दोनों बच्चे। हमारे बँधी हुई मुट्ठियों में मनुष्यता के भविष्य की संभावनाएँ हैं। हम बच्चों को हार कर मनुष्य भला क्या जीतेगा? हम से मुँह फेर कर मनुष्य कहाँ जा सकता है। न्याय होगा, तब मन छोटा मत कर। चल हम भगवान से न्याय माँगें। वो जो उड़ती उजली दाढ़ी वाले हैं, जिन्हें तुम भगवान कहते हो, हम उन्हीं को अल्लाह कहते हैं। मैंने अपना नाम बता दिया है उन्होंने कहा है न्याय होगा। तुम भी कह दो।”
उसकी सहेली हिली नहीं, कुछ बोली भी नहीं, पाषाणवत् स्थिर रही।
बस इतना बोली-
“मैं क्या कहूँ, बहन। मैं कहाँ शिकायत लिखाऊँ। मेरे शरीर के साथ मेरा तो नाम भी धुआँ हो गया। मेरा नाम लेना सांप्रदायिक है, असीफ़ा। मैं बरपेटा की बेटी हूँ, मेरा कोई नाम नहीं हूँ। मैं नैतिकता के पन्ने से मिटाई हुई इबारत हूँ, मिट्टी पर लिख कर पुँछा हुआ अक्षर हूँ।तू एक नाम है, मैं एक संख्या हूँ। मैं राजनैतिक असुविधा का पर्याय हूँ। मैं असम की बेटी हूँ, मुझमें किसी की रूचि नहीं। मैं वो घाव हूँ जो सूख जाने के बाद दाग नहीं छोड़ता। मैं राजनैतिक समीकरण में नहीं जुड़ती, मेरा कोई नाम नहीं है। मैं अनामिका, क्या शिकायत करूँ, क्या सोग करूँ?”
यह कह कर असीफ़ा की नई सहेली गले लग गई। और आँसुओं में भीगी सिसकियाँ आकाश की ओर वैसे ही दौड़ती रहीं, जैसे बाबा के पुकारने पर कभी वो दोनों दौड़ा करती थीं।
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