Skip to main content

बुद्धिजीवियों की बारात

बुद्धिजीवियों की बारात

शरद जी रिटायर हो चुके थे। आधार का भय आधारहीन मान कर आधार बनवा चुके थे, और पेंशन प्राप्त कर के भोपाल मे जीवनयापन कर रहे थे। एक बार बिहार जा कर शरद जी नरभसा चुके थे, पुन: नरभसाने का कोई इरादा था नहीं, सो मामाजी के राज में स्वयं को सीमित कर के रखे हुए थे।
इस्लाम आज कल ख़तरे मे नही आता था, संभवत: इमर्जेंसी के बाद से, इस्लाम सबल हो चुका था, और कल निपचती जींस और लोकतंत्र के ख़तरे मे रहने का दौर चल रहा था। न्यू मार्केट के कॉफ़ी हाऊस मे चंद बुद्धिजीवी लोकतंत्र पर आए संकट पर चर्चा कर लेते थे, जोशी जी वहाँ भी नहीं जाते थे।
एक दफे वहाँ के मलियाली वेटर्स को जोशी जी के हिंदी लेखक होने का पता चल गया और उन्होंने जोशीजी को यिंदी यिम्पोजीशन के विरोध मे कॉफ़ी देने से मना कर दिया था। कहाँ शरदजी सरस्वती से ब्रह्मप्रदेश तक लिखना चाहते थे और कहाँ उन्हे बड़े तालाब के उत्तर भाग का लेखक घोषित कर दिया गया था।
इस से क्षुब्ध जोशी जी अपने बग़ीचे मे टमाटर उगा रहे थे। जानने वाले कहते हैं कि इसके पीछे उनकी मँशा महान किसान नेता बन कर उभरने की थी, किंतु उन्हे पता चला कि आधुनिक किसान नेता किसानों को पुलिस के सामने खड़ा कर नानी याद दिलाते है, और स्वयं पीछे से दुबक कर विदेशी ननिहाल निकल लेते है।
जोशी जी राजनीति से किनारा कर चुके थे। लेखन भी अब कम ही करते थे। एक दफ़ा प्रकाशक को पांडुलिपी भेजने के संदर्भ मे प्रकाशक से बात की, प्रथमत: तो प्रकाशक फ़ोन पर ही ऐसा उद्वेलित हुआ मानो संभव होता तो तार से निकल कर ही चमाट मार देता। उद्विग्न हो बोला कि आप हमें सँघी प्रकाशक समझे हैं?
हम क्यों पाँडवो की कथा छापेंगे? हमें ना चाहिए पाँडुलिपी। पिछली ठँड मे हिंदी विशारद का सागर हिंदू अकादमी से मिला पुरस्कार फ़ासिस्ट सरकार के विरोध मे लौटा चुके हैं। एक ही वाक्य मे प्रकाशक महोदय ने हिंदी ज्ञान और विद्रोही व्यक्तित्व का परिचय दे डाला।
शरद जी ने सकुचाते हुए बताया कि वे पांडुलिपी मेन्युस्क्रिप्ट को कह रहे थे और महाभारत पर उन्होंने कभी कुछ नही लिखा है। व्यंग्य संकलन है जिसे प्रकाशित करने के इच्छुक हैं। प्रकाशक ने झड़प दिया। कहे व्यंग्य का बाज़ार बचा नहीं है अब।
तमाम आय टी वाले बेहूदे ट्विटर पर व्यंग्य पेलते हैं। इंफ़ोसिस वाले मूर्ति जी कहते है भारतीय तकनीक मे नवरचना नही है, इनोवेशन नही है। अब तमाम अभियंता व्यंग्य लेखन मे जुटे है तो इनोवेशन कौन लाएगा। हिंदी वाले ट्विटर पर व्यस्त है, अँग्रेजी वालो ने गाली गलौज को व्यंग्य विधा बना रखा है।
आप मानेंगे नहीं, जैसी बातों पर पुराने भोपाल मे दँगे हो जाते थे वही बातें अँग्रेजी मे लोग पैसे देकर सुनने जाते हैं। बहरहाल, हास्य की स्थिति पर आँसु बहाकर प्रकाशक ने शरद जी से पूछा- आप करते क्या है?
जोशी जी बोले - लेखक हैं? व्यंग्यकार हैं।
“वो तो समझे पर करते क्या है?”

जोशी जी कुछ समझ ना पाए। प्रकाशक जी ने समझाया। 
‘देखिए, आप क्रिकेटर हैं, नेता हैं, पत्रकार हैं, समाजसेवी है, पुलिस मे है, सेठ साहूकार है,  मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं, स्वयं अभिनेता है या धनी अभिनेत्री के पति हैं। व्यवसाय क्या है? हम उन्ही की किताबें छापते है जो मूलत: लेखक नही होते।

‘वही बिकता है। सफल लेखक से अधिक किताबें असफल अभिनेता और छुटभैये नेता की बिकती हैं। आप कुछ तो लेखन के अलावा करते होंगे?’
‘जी, घर के पीछे टमाटर उगाता हूँ।’ 
‘आप दलित लेखक बन जाईए। उसमें भी पैसा अच्छा है ।’

‘हम आपकी पुस्तक तो दलित विचारक, कृषक के नाम पर प्रचारित कर सकते हैं। इसमें अश्लीलता कितनी है?”

‘क़तई नहीं।’
‘अरे भाई, कुछ तो बिकने वाला माल लिखते। आप पुराने आदमी है, कुछ स्लीज़ी वाला डालिए, मसलन फ़लाँ कवि सम्मेलन मे फ़लाँ कवियत्री के आँचल के खिसकने पर फ़लाँ साहित्यकार क्या बोले?

‘किंतु मैं तो समाज पर लिखता हूँ।’

‘अरे प्रभु, समाज ही तो लोगों के शयनकक्षो पर कान लगाए बैठा है। उन्हे कुछ तो मसालेदार दें। आधा आधुनिक साहित्यकार वर्ग आपसे रूष्ट है, इतना आपने काँग्रेस और इंदिराजी के विरोध मे लिखा। इतनी सुंदर हैंडलूम साड़ी पहनने वाले के ख़िलाफ़ भला कोई लिखता है?’

‘किंतु उस समय तो अत्याचार की पराकाष्ठा थी। सब स्वाभिमानी लेखक उनके ख़िलाफ़ लिख रहे थे।’

‘अरे जोशीजी, लिख के क्या उखाड़ लिया? इंदिरा जी वापस आईं, जो गोद मे थे लेखक, अकादमी के चेयरमैन हो गए, आप जैसे टमाटर की खेती कर रहे हैं।‘
प्रकाशक महोदय आगे बोले- ‘हिंदी भी शुद्ध लिखते हैं आप, हिंगलिश लिखते तो आपका एक शो करवा देते। किंतु आप तो गाली भी देने को तैयार नहीं है। देखिए, दुनिया आगे निकल चुकी है। आज लोग श्रीलाल शुक्ल और परसाई अख़बार मे छुपा कर पढ़ते है, और शोभा दे ड्राईंग रूम मे रखते हैं।’

जोशी जी थोड़ी देर शाँत रहे। प्रकाशक बोले, “एक तरीक़ा है। आप बुद्धिजीवी बन जाएँ।’ 

‘उसके लिए क्या करना होगा?’
प्रकाशक महोदय सोच मे डूब गए। अचानक बोले। 
‘सबसे पहले तो दाढ़ी बढ़ा लें। और ये क्लर्कों जैसे क़मीज़ पहन कर घूमना बँद करें। फैबइंडिया से बढ़िया सा सूती कुर्ता ख़रीदें।सिगरेट पीते हैं? नही पीते तो शुरू कर दें। गाँजा मिल जाए तो अति उत्तम। चिलम थाम कर सर्वहारा पर चर्चा करें। सरकार के गरियाएँ। आप के आस पास कुछ ग़लत हुआ गए दिनों?’

‘पड़ोस का पप्पन केले के छिलके पर फिसल गया था। और तो कुछ ख़ास नहीं।’ शरद जी शर्मिंदा से हो गए’

‘उसी पर लेख लिख मारिए’

‘उस पर क्या? वो तो दुर्घटना थी।’
‘अब यह भी हम बतलावें, लेखक आप हैं। लिखिए, पप्पन का गिरना सामाजिक पतन का सूचक है। सवाल यह नही है कि पप्पन गिरा, सवाल यह है कि पप्पन क्यों गिरा। पप्पन फल के छिलके से गिरा, पप्पन यदि माँस खाता तो फल न खाता, छिलका ना होता और पप्पन संभवत: न गिरता।

हम पप्पन तो गिरता हुआ देख रहे है, किंतु पप्पन का गिरना अपने आप मे एक घटना नहीं है, सामाजिक पतन का सूचक है। हिंदुत्व के ठेकेदारों ने माँस भक्षण पर इतना प्रतिबंध लगाया है, कि उनके भय से मीट चिकन खाने वाले घर के सामने फलो के छिलके फैला कर रखते हैं और देर सबेर उन पर गिरते हैं।

हमें मोदी जी के राज मे फैले उस भय के वातावरण पर ध्यान देना है जिस मे एक पप्पन घर के सामने केले के छिलके बिखेरने को मजबूर है। हो सकता है कि छिलके फैलाना मोदी जी के फ़ासिस्ट स्वच्छ भारत अभियान के विरोध मे पप्पन का एकाकी विरोध हो, किंतु आज के आपातकाल-सरीखे माहौल मे बेचारा मूक है।

एक दृष्टि से देखे तो हो सकता है पप्पन उतना भोला भी ना हो। पप्पन उत्तरभारतीय हिंदी भाषी भगवा आतंकवादी भी हो सकता है, जिसने केले के पत्तों पर खाने वाले दक्षिणभारतीयो के विरूद्घ विष फैलाने के लिए गिरने को केले के छिलके का उपयोग किया हो। आख़िर पप्पन संतरे के छिलके पर भी गिर सकता था।

एक भोला भाला बेवक़ूफ़ भारतीय ही होगा जो पप्पन पतन काँड मे संतरे के छिलके के ना होने को नागपुर और सँघ से जोड़ कर ना देख सके। हर जगह सँघ का हाथ है, कोने कोने मे पप्पन केले के छिलको पर गिर गिर के विषाक्त सांप्रदायिक वातावरण बना रहे हैं। लोकतंत्र ख़तरे मे है।

‘किंतु सब एक सा लिखेंगे, एक सा दिखेंगे तो यूनिफार्म नहीं लगेगा?’ शरद जी हिचकिचाए।

प्रकाशक ठहरे, ठिठके, सँभवत: मुस्कुराइए। जोशी जी को फ़ोन मे प्रकाशक जी के उदारतावादी फैलें हुए दाँतो से झाँकता छायावाद दिखा। 

“परसाई तो पढ़े होंगे?” प्रकाशक बोले।

“जी” जोशीजी बोले

‘तो का कहे थे वो? बुद्धिजीवी वो शेर है जो सियारों की बारात मे बैंड बजाते हैं। सो बैंड बजाने के लिए, सुर और संगीतकार दोनों को यूनिफार्म मे होना ही पड़ेगा। पप्पन गिरे या उठे, नैरेटिव फ़िक्स होना चाहिए। बुद्धिजीवियों की बारात का रंग तब ही आएगा’  

शरद जी ने धीमे से फ़ोन रख दिया।

अचानक एसएमएस की सूचना बजी। प्रकाशक का मैसेज था। “एक और एडभाईस था, नाम बदल कर देखें- शरद जोशी ‘जोशुआ’ काँचा इलैय्या शेपर्ड की तर्ज़ पर लिखवा कर साहित्य अकादमी को भेजें, अवश्य छपेगा, विदेश से भी फँडिंग मिल सकेगी, सोचिएगा।”



Comments

Popular posts from this blog

कायस्थ- इतिहास एवं वर्तमान परिपेक्ष्य

सत्यम , दानम , क्षमा शीलमानृशंस्य तपो घृणा। दृश्यंते यत्र नागेंद्र स ब्राह्मण इति स्मृतः।। ( हे सर्पराज , जिसमें सत्य , दानशीलता , क्षमा , क्रूरतारहित भाव , तप एवं संवरण , एवं संवेदना हो , वह मनुष्य को ही ब्राह्मण मानना चाहिए। ) शुद्रे तु यद् भवेल्लक्षम द्विजे तच्च न विद्दयते। न वै शूद्रों भवेच्छुद्रो ब्रह्मणो न च ब्राह्मण : ।। ( यदि शूद्र में यह गुण हैं ( सत्य , दान , अक्रोध , अहिंसा , तप , संवरण एवं संवेदना ) और ब्राह्मण में यह गुण परिलक्षित ना हों तो वह शूद्र शूद्र नहीं , ब्राह्मण है ; और वह ब्राह्मण ब्राह्मण नहीं है। )  - युधिष्ठिर - नहुष संवाद , अजगर कांड , महाभारत , वन पर्व   वर्तमान परिपेक्ष्य में जिसे जाति कहा जाता है , वह वर्ण व्यवस्था का विकृत रूप है। सनातन धर्म का वर्ण जहाँ समाज को व्यवसाय एवं क्षमता के अनुरूप व्यवस्थित करने का प्रयास था और कर्म पर आधारित था , जाति उसी व्यवस्था का विघटित रूप बन कर जन्मगत व्यवस्था बन गई। जाति या कास्ट पुर्तगाल

Pathaan and Polarisation- Movie Review

Many have not seen Pathan, I have. I have a huge tolerance towards stupid movies and I love to watch all sort of movies. What has bothered me most about Pathaan is that in terms of content and characterisation, it is absolutely shoddy, much worse than much lampooned RaOne AND there is no review which openly tells you about it.  Most reviewers have reviewed the movie like a teenager, gushing over VFX generated body of ShahRukh Khan. This reminds me of my schoolmates bunking classes to watch tomato-sauce-laced movies of Ramsey brothers, gushing over semi-nude voluptuous actresses in the late 80s. Only difference being that those were school kids in class XII, with raging hormones and a stupefied intellect when a world around them was fast changing. Here we have middle-aged professional movie reviewers guiding people to their way in or out of Movie theatres. Their primary argument in favour of the movie is nothing but beefed up Shahrukh Khan and the gap between his earlier movie and this

बाल विवाह - हिंदू इतिहास और सत्य

  इतिहास का लेखन उसकी विसंगतियों की अनुक्रमिका नहीं वरन उसके समाज के आम रूप से स्वीकृत मान्यताओं एवं उस समाज के जननायकों द्वारा स्थापित मानदंडों के आधार पर होना चाहिए। परंतु जब लेखनी उन हाथों में हो जिनका मंतव्य शोध नहीं एक समाज को लज्जित करना भर हो तो समस्या गहन हो जाती है। जब प्रबुद्ध लोग कलम उठाते हैं और इस उद्देश्य के साथ उठाते हैं कि अप्रासंगिक एवं सदर्भहीन तथ्यों के माध्यम से समाज की वर्ग विभाजक रेखाओं को पुष्ट कर सकें तो हमारा कर्तव्य होता है कि हम सत्य को संदर्भ दें और अपने इतिहास के भले बुरे पक्षों को निर्विकार भाव से जाँचें।   बीते सप्ताह बाल विवाह को लेकर विदेशी सभ्यता में उठे प्रश्नों को भारत की सभ्यता पर प्रक्षेपित करके और उसकी स्वीकार्यता स्थापित करने पर बड़ी चर्चा रही। इस संदर्भ में   श्री ए एल बाशम से ले कर राजा राम मोहन रॉय तक चर्चा चली। बाशम की पुस्तक द वंडर दैट वाज इंडिया - को उद्धृत कर ले कहा गया कि हिं