जिस प्रकार वनस्पति घी डालडा होता है , जैसे प्रतिलिपि ज़ेरॉक्स होती है , मनीष श्रीवास्तव जी श्रीमान जी होते हैं। कम लोगों को पाठकों का इतना स्नेह प्राप्त होता है , जो उनके कृतित्व एवं लेखन से आगे निकल जाता है। इसका कारण उनके लेखन में सत्य का प्रतिबिम्ब परिलक्षित होना होता है जो पाठक ने उनके व्यक्तित्व में देखा सुना हो। लेखन मेरी दृष्टि में वह माध्यम होता है जिसके द्वारा अपने सत्य को वह कपोल कल्पना का आवरण पहना कर सार्वजनिक कर देता है और आत्मा को एक पिशाच के बोझ से मुक्त कर पाता है। कलम के माध्यम से लेखक वह कहने का साहस जुटा पाता है जिसे अन्यथा वह संभवतः न कह पाए।जब कोई कृति यह कर पाती है तो वह न केवल लेखक की आत्मा के पिशाच हटाती है वरन पाठक की आत्मा के धागों पर लगी गिरहें भी खोल देती है और उसके मानस को मुक्त कर देती है। इस दृष्टि से मनीष की यह पुस्तक " मैं मुन्ना हूँ " अपने दायित्व का पूर्णता से निर्वाह करती है।
I am a Worshiper of Words. I ponder, I think, I write, therefore, I exist. A Blog on Literature, Philosophy and Parenting