सत्यम, दानम, क्षमा शीलमानृशंस्य तपो घृणा।
दृश्यंते यत्र नागेंद्र स ब्राह्मण इति स्मृतः।।
(हे सर्पराज, जिसमें सत्य, दानशीलता, क्षमा, क्रूरतारहित भाव, तप एवं संवरण, एवं संवेदना हो, वह मनुष्य को ही ब्राह्मण मानना चाहिए।)
शुद्रे तु यद् भवेल्लक्षम द्विजे तच्च न विद्दयते।
न वै शूद्रों भवेच्छुद्रो ब्रह्मणो न च ब्राह्मण:।।
(यदि शूद्र में यह गुण हैं (सत्य, दान, अक्रोध, अहिंसा, तप, संवरण एवं संवेदना) और ब्राह्मण में यह गुण परिलक्षित ना हों तो वह शूद्र शूद्र नहीं, ब्राह्मण है; और वह ब्राह्मण ब्राह्मण नहीं है।)
- युधिष्ठिर -नहुष संवाद, अजगर कांड, महाभारत, वन पर्व
वर्तमान परिपेक्ष्य में जिसे जाति कहा जाता है, वह वर्ण व्यवस्था का विकृत रूप है। सनातन धर्म का वर्ण जहाँ समाज को व्यवसाय एवं क्षमता के अनुरूप व्यवस्थित करने का प्रयास था और कर्म पर आधारित था, जाति उसी व्यवस्था का विघटित रूप बन कर जन्मगत व्यवस्था बन गई। जाति या कास्ट पुर्तगाली शब्द कास्टा से निकला है जिसका तात्पर्य वंश अथवा प्रजाति से होता है, जो इस कारण जन्म- आधारित होता है। सनातन परम्परा में इसे गुण -धर्म पर आधारित माना गया है एवं निहित स्वार्थों एवं जातीय राजनीति के विरोध में महाभारत काल से ही इसे वंशगत स्वार्थ से जोड़े जाने का विरोध हमारे धर्म ग्रंथ ही करते रहे हैं।
ऋग्वेद के जिस भाग में विभिन्न वर्णो के ब्रह्मा के शरीर के विभिन्न अंशों से उद्धृत होने के प्रसंग को ले कर जाति की पश्चिमी अवधारणा को भारतीय वर्ण व्यवस्था से संतुलित करने का प्रयास किया गया है। तथ्य यह है कि ऋग्वेद के दशम मंडल के पुरुष सूक्त में जहाँ यह उद्धृत है कि प्रत्येक वर्ण ब्रह्मा के शरीर के अंश हैं वह चारो वर्णों को ब्रह्मा से बांधता है, और किसी भी वर्ण को ब्रह्मा से भिन्न नहीं मानता है। आधुनिक राजनीति ने समाज को सवर्ण और दलित में बाँटा है, वैदिक विद्वता तो वर्ण के अंदर आने वाले प्रत्येक वर्ग को वर्ण से जुड़ा अर्थात् सवर्ण ही मानती रही है। वैदिक व्यवस्था के अनुसार अवर्ण तो केवल अभारतीय ही हुए हैं। भारतीय दर्शन में शरीर के भिन्न भागों में ना कोई भिन्नता है ना ही ब्रह्मा के मस्तक, भुजा, जंघा एवं चरणों में प्रतिस्पर्धा है। प्रत्येक भाग अनिवार्य है, आवश्यक है एवं एक ही परम ब्रह्म का अंश है।
आज जहाँ हिंदू सनातनी समाज में राजनैतिक विभाजन की रेखाएँ स्वार्थवश गहराई जा रही हैं, यह आवश्यक है कि हम कायस्थ इतिहास पर दृष्टि डालने से पूर्व धर्म की वर्ण के संदर्भ में वास्तविक स्थिति को समझें। यह किसी भी वर्ण के लिए तो आवश्यक है ही, कायस्थ वर्ण के लिए तो यह और भी प्रासंगिक और अनिवार्य हो जाता है, क्योंकि कायस्थ ही वह काया से उत्पन्न वह वर्ण है जो ब्रह्मा के प्रत्येक अंग को अपने भीतर परिलक्षित करता है। काया वह है जो ब्रह्मा के मस्तक सूचक ब्राह्मण, भुजा सूचक क्षत्रिय, जंघा सूचक वैश्य एवं चरण सूचक शूद्र को अपने भीतर समाहित कर लेती है, और ब्रह्मा की इस काया में स्थित है कायस्थ।
कायस्थ जातीय संघर्षों के मध्य सनातन के मूल कर्म -आधारित व्यवस्था की स्मृति है; कायस्थ बुद्धि में ब्राह्मण, वीरता में क्षत्रिय, वाणिज्य में वैश्य, कला, शिल्प, श्रम एवं सेवा में शूद्र है। चित्रगुप्त का देवत्व आत्मा का आँकलन उसके जन्म, कुल इत्यादि से इतर कर्म फल के आधार पर करने पर ही है।स्वाभाविक ही है, एक विभाजक राजनीति में कायस्थ ही उस कड़ी का कार्य करे जो समाज को बांध के रख सके, भले इस इस वस्तुनिष्ठ निर्लिप्त भाव की उसे स्वयं राजनैतिक हानि उठा कर रक्षा करनी पड़े। यह उत्तरदायित्व उस पर उसी पौराणिक परपिता ने दिया है जिसके एक हाथ में लेखनी, एक में वेद, एक में पाश और एक में दंड है। धर्म ही उसका मार्ग है, संरक्षक है, नियति है।
पद्म पुराण के अनुसार, एक समय जब त्रुटि वश हुई असामयिक मृत्यु से विचलित हुए ब्रह्मा ने तपस्या की तब उनके शरीर अर्थात् काया से एक देव की उत्पत्ति हुई जिन्हें तब तक ब्रह्मा की छवि अथवा चित्र में गुप्त रहने के कारण चित्रगुप्त नामकरण किया गया। चित्रगुप्त वर्ण-वर्ग के लोभ मोह से मुक्त विचारक हैं और समाज के नैतिक संतुलन एवं संचालन के लिए आवश्यक हैं। वर्तमान काल में प्रशासन से जिस नीतिगत निष्पक्षता का आग्रह रखा जाता है, वही कायस्थ कुल का चिन्ह रहा है। एक अन्य पौराणिक विवरण में कायस्थ कुल का प्रारम्भ चंद्रवंशीय क्षत्रिय राजा से जोड़ा जाता है। स्कंद पुराण के अनुसार जब परशुराम को अपनी प्रतिज्ञा की पूर्ति के लिए राजा चन्द्रसेन की की गर्भवती पत्नी को ढूँढते ऋषि दुर्लभ्य के पास पहुँचते हैं। ऋषि दुर्लभ्य राजा चन्द्रसेन के पुत्र, जो कि माता की काया में स्थित थे, उनका जीवन दान परशुराम जी इस इस वचन पर माँग लेते हैं कि उनके पुत्र खड्ग के स्थान पर लेखनी का उपयोग करेंगे। उनकी संतानें ही इस मान्यता के अनुसार कायस्थ हुए, और आगे चंद्र (चेनाब) नदी की घाटी से कश्मीर पहुँच कर श्रीनगर के शासक हुए। इन्हीं के वंशज कालांतर में महाराष्ट्र पहुँच कर प्रभु कायस्थ कहलाए। पद्म पुराण की परिकल्पना के अनुसार, श्री चित्रगुप्त महाराज का विवाह ऋषि धर्म शर्मा की पुत्री इरावती एवं सूर्य पुत्र मनु की पुत्री सुदक्षिणा से हुआ। उनके पुत्रों को क्षात्र धर्म की ओर जा कर प्रतापी शासक बनाने का प्रस्ताव ब्रह्मा ने किया। श्री चित्रगुप्त ने राजकीय सत्ता की अस्थिरता एवं राजनैतिक नेतृत्व से जुड़े पापों का वास्ता दे कर अपने पुत्रों के लिए तलवार के स्थान पर लेखनी के मार्ग से बौद्धिक नेतृत्व का चयन किया। दोनो ही कथाओं के अनुसार हिंसा के स्थान पर विद्या एवं ज्ञान का प्रभावी अस्त्र के रूप में चयन कायस्थों के स्वैच्छिक निर्णय बताया गया है।
पौराणिक संदर्भो से ऐतिहासिक संदर्भों की ओर मुड़ें तो वल्लभी (गुजरात) के शासक सिलादित्य सातवीं सदी के अभिलेखों में स्वयं को कायस्थ बताते हैं। इन अभिलेखों में कायस्थों को भगवान शिव की काया से उत्पन्न बताया गया है।बंगाल के गौर कायस्थ महाभारत के भागदत्त, जिन्होंने दुर्योधन की ओर से युद्ध में भाग लिया था, उनसे अपना सम्बन्ध बताते हैं। इसी वंशवृक्ष से सेना साम्राज्य को जोड़ा जाता है, जिसका अंत बख़्तियार ख़िलजी के आक्रमण के साथ हुआ। चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में चाणक्य के अर्थ शास्त्र में लेखक का विवरण अमात्य के गुणों से सम्पन्न, सामाजिक मर्यादाओं के प्रति सजग, लेखन -वाचन-समर्थ के रूप में किया गया है। मान्यता है कि ऐसे गुणों से सम्पन्न व्यक्तियों या शासकीय अधिकारियों को कायस्थ कहा जाता था। कौटिल्य अर्थशास्त्र में प्रथम-कायस्थ नामक व्यक्ति का ज़िक्र आता है। १२वीं सदी के चंदेल अभिलेखों (अजयगढ़ के ताम्रपत्र) में भी सम्पन्न प्रशासनिक अधिकारियों के रूप में कार्यरत कायस्थों का ज़िक्र आता है। १७२ शताब्दी में हम बौध ताम्रपत्रों में कायस्थ श्रमण का चित्रण पाते हैं। नाटक मृच्छकटिकम में कायस्थ एवं श्रेष्ठी को हम न्यायाधीश के साथ न्याय सभा में पाते हैं, जो कायस्थ समाज के कुलीन सामाजिक अस्तित्व के विषय में बताता है।
कायस्थ समाज की उपजातियाँ महाराज चित्रगुप्त के पौत्रों से जोड़ी जाती हैं, जिन्होंने ने इरावती के आठ पुत्रों - चारु, सुचारु, चित्राक्ष, मतिमान, हनुमान, चित्रचारु, चारुणा, जितेंद्रिय - तथा सुदक्षिणा की चार संतानों- चित्रभानु, विभानु, विश्वभानु एवं वृजभानु से आगे संतति को बढ़ाया। इस धारा के अनुसार श्रीवास्तव शासक जिन्हें मगध सम्राट ने महाराजाधिराज की उपाधि दी, सक्सेना उपजाति के साथ श्रीनगर से निकले। भटनागर जो चित्रभानु की संतति थे, वे भटनेर से निकले जहाँ उनकी राजधानी रही। अम्बष्ट इरावती-पुत्र हनुमान की संतानों ने गिरनार पर्वत पर गढ़ बनाया और अम्बा देवी के भक्त होने के कारण इस नाम से जाने गये। अधिकांशतः अंबष्ट चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े होते थे परंतु महाभारत में और सिकंदर की सेना के समक्ष भी अंबष्ट सेना के होने के संदर्भ मिलते हैं। इसी प्रकार मथुरा से निकले माथुर, सूर्यध्वज, जितेंद्रिय- पुत्र कुलश्रेष्ठ, निगम आदि कुल मिलाकर ग्यारह प्रधान उपजातियाँ मिलती हैं। जिस प्रकार ये समस्त उपजातियाँ अपना इतिहास भारत के भिन्न भिन्न प्रांतों से बताते हैं, विद्वान के राज्य की सीमाओं के बंधन से इतर होने का यह उदाहरण बताती हैं।
‘विद्वतम च नृपत्वम च नैव च तुल्यं कदाचन, स्वदेशे पूज्यते राजा, विद्वान सर्वत्र पूज्यते’ अर्थात् राजा एवं विद्वान की तुलना अनुचित है क्योंकि राजा अपने देश में ही पूजा जाता है, वहीं विद्वान सर्वत्र सम्मानित होते है। कायस्थों की सफलता में हम इस संस्कृत सुभाषित की सफलता देखते हैं।तलवार से हट कर लेखनी का चयन कायस्थ पूर्वजों के लिए कितना परिपक्व निर्णय रहा यह इसी से स्थापित होता है कि कायस्थों का भिन्न भिन्न क्षेत्रों में आगमन रक्त रंजित ना होकर वहाँ के समाज के लिए सदैव सहज स्वीकार्य रहा। वंशागत रूप से वर्ण व्यवस्था की सफलता भी कायस्थ समाज में पीढ़ी दर पीढ़ी शिक्षा, विज्ञान एवं कला के प्रति प्रतिबद्धता में दिखती है। अपनी जड़ों के प्रति लज्जित ना हो कर, उसके गुणों को परिमार्जित करना प्रत्येक वर्ण को निखारेगा ही, और समाज को भी अपने इतिहास से जोड़ेगा। पहचान की राजनीति के काल में कायस्थ समाज संभवतः स्वयं को राजनैतिक रूप से बहुधा अप्रासंगिक भी पाएगा परंतु विद्या एवं ज्ञान के प्रति श्रद्धा और विद्वता की सार्वभौमिकता कायस्थ समाज की नयी पौध को सफलता के नए आयाम भी देगी।
कायस्थों के द्विज अस्तित्व को लेकर १८४४ में ३९ बंगाल के ब्राह्मणों, १८५८ में ९० मराठी ब्राह्मणों एवं १८७३ में ९५ काशी के ब्राह्मणों के द्वारा दी गयी व्यवस्थाओं में लिखित रूप से कायस्थों को द्विज घोषित किया गया। द्विज का अर्थ सरल शब्दों में सनातनी दर्शन के अनुसार समझें तो विद्या प्राप्त करने की योग्यता ही है, एक वर्ण की दूसरे वर्ण से वरीयता नहीं है। वर्तमान समाज में पश्चिमी दर्शन के आधार पर आकार लेती सामाजिक विद्वेष फैलाने वाली राजनैतिक पहचान की सोच से इतर समाज के प्रत्येक अंग को अपने में अंगीकार करने वाले कायस्थ समाज के लिए यह कर्तव्य और अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है कि अपने पूर्वजों के द्वारा अर्जित शताब्दियों के ज्ञान का उपयोग समाज को बांधने में करे। सनातन के एकीकरण के जिस वृक्ष को कायस्थ महामानवों जैसे स्वामी विवेकानंद, श्री अरबिंदो, मुंशी प्रेमचंद, डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद और लाल बहादुर शास्त्री ने वर्ण -जाति की संकुचित सीमाओं को तोड़ कर नव =-पल्लवित किया, उसे हम आगे बढ़ाएँ। कायस्थ इतिहास हमारा विश्वास बने, हमारे पंख बने, हमारी बेड़ियाँ नहीं। यदि विद्या कायस्थ ही को मुक्त नहीं करेगी तो किसे करेगी? यह हमारा कर्तव्य है कि भारत को संविधान देने वाले राजेंद्र बाबू के समान विशाल हृदय रखें और संविधान समिति के अध्यक्ष हो कर भी संविधान के निर्माण के यश पर अधिकार न ठोकें, सुभाष बाबू की भाँति अंग्रेजों से विजित स्वतंत्रता पर एकाधिकार ना जमाएँ। हम श्रीराम की वो अनामी गिलहरियाँ हों जो राष्ट्र और समाज निर्माण में ज्ञान, शिक्षा, कला के पत्थर जोड़ें। उस गौरवशाली सनातन परम्परा की ओर समाज को ले जाए जिसमें वर्ण गौरव जड़ें गहरी करने का साधन हो, दीवारें ऊँची करने का माध्यम नहीं।
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